Thursday, December 9, 2010
नाता फिर क्यूँ .. उन गलियौं से???
हो गया हूँ रुशवा जिन गलियौं से,
तोड़ दिया है रिश्ता उन गलियौं से !
कदम उन्ही रास्तोपर चलने को है फिर क्यूँ ?
छोड़ दिया है चलना जब उन गलियौं से !!
रास्ता-ऐ-मनजिं और भी है फिर क्यूँ ?
चल पड़ती है कदम भटकते उन गलियौं से !
सुकू-ऐ-दिल की और भी है फिर क्यूँ ?
मिलती है राहत उन्ही गलियौं से !!
नफरते दिलमें भरा - भरा है फिर क्यूँ ?
होठों की हंसी मिलती है उन गलियौं से !
चोट-ऐ-जिगर गहेरी है फिर क्यूँ ?
राहत-ऐ-महरम की आश है उन गलियौं से!!
अब तो ज़िन्दगी एक प्याश बन गई है
रुसवा-ऐ-गली कुछ खाश बन गई है ,
रातें अब तो कटती है उस इन्तुज़र में
सुबह हो और फिर चल पडून उन गलितोउन से!!!
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